Tuesday, 22 August 2017

बहाना .....

सुनाई देती है आज 
बंद खिड़कियों से आवाज़ 
दिखाई देती है 
बदलते वक़्त की आगाज़ 

फिर भी जाने क्यों 
बावरा सा हो मन 
दौड़ता है पकड़ने को 
एक छूटी हुई धड़कन 

साँसों के काफ़िले से 
दूर पड़ा कोई गाँव 
आँखें ढूँढ़ती  है वहाँ 
यादों की बनी  छाँव 

कि तोड़ी थी जानकर 
दीवारें आस पास की 
एक भरोसे की थी झलक 
कुछ सुकून की आस थी 

उस घर का क्या करूँ मैं 
मुझे छोड़ जो चला था 
जहाँ चिराग़ करने रौशन 
मेरा हौंसला जला था 

झकझोर सा दिया है 
मुझे उसी हवा ने 
समझा जिसे था साँसें 
वो कहर के कारवाँ ने 

नहीं और कुछ है सुनना 
न ही  है कोई  फ़साना 
मेरे कल की महफ़िलों मे 
न है मेरा आना जाना 

उन्हें ख़्वाब  मुबारक़ 
झूठा मगर सुहाना 
मैं तो ख़ाक का बना था 
था ये ज़लज़ला बहाना