Thursday, 11 August 2016

बातों के हमसफ़र ......

घिर आए हो तुम आज 
फिर से वो सावन बनकर 
ज़हन में उठी मिटटी की महक 
और आँखें फिर से बरसने लगी 

महक उसी भीगी सी मिटटी की 
ताज़े है जहाँ आज भी  शायद 
तुम्हारी यादों से भरी तस्वीर लिए 
तुम्हारे ही क़दमों के निशाँ 

वो उलझे हुए लफ़्ज़ों के सिलसिले 
सुलझते थे जहाँ सवाल कई 
दिलो दिमाग़ की तकरार लिए 
बेपरवाह से थे वो सवाल जवाब 

मेरे माज़ी में जब भी देखता हूँ 
तुमसे न मिल पाता हूँ मैं 
न मुस्तक़बिल में नज़र आते हो 
फिर,क्या आज भी हो साथ मेरे ?

शायद मेरे वक़्त के पन्नो पर 
तुम कभी बीते ही नहीं 
या फिर तुम पर आकर  कहीं 
थम  सी गयी है ज़हन की घड़ी 

शीशे के बने हर आईने में 
हूँ अब भी अकेला मैं मगर 
जब भी ख़ुद से  मिलता हूँ 
मुझे तुम से घिरा पाता हूँ 

देखा जो आज भी इधर उधर 
हैराँ  हूँ हर जगह तुम्हे पाकर 
हाँ आज भी हो  तुम साथ मेरे 
मेरी  बातों के हमसफ़र 


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