Wednesday, 17 August 2016

रतजगी आँखें ....

बहुत कुछ कहती हैं 
दो रतजगी आँखें 
करती है बयां 
बीते दिन की दास्ताँ 

कोई वाकया कमदर्द सा 
कि जिससे  लगी चोट कोई 
या फिर हसरत कोई 
टूटा जो सच के आईने में 

उन आँखों के उजले पन्नो पर 
लिखें है कई ख्वाबों के ग़ज़ल 
ओढ़े हैं कुछ दर्द के लिहाफ़ 
और कुछ अभी है अधूरे से 

शायद अरसे से है ठहरा 
उन आँखों में कोई बादल गहरा 
जिससे ज़हन में नमी सी है 
पर एक बरसात की कमी सी है 

नक्शा है दिल के रास्तों का  
एक नींद की तलाश  भी है 
है उम्मीदों का दिया जलता सा 
और ग़म का कुछ एहसास भी है 

क्या करें की रुकती नहीं 
जज़्बातों की खामोश नदी 
फूट पढ़ती है आँखों की गोद से 
बहती है बना अपना ही रास्ता

बहुत कुछ कहती हैं 
दो रतजगी आँखें 
करती है बयां 
बीते दिन की दास्ताँ...  


No comments:

Post a Comment