Friday 31 July 2015

हर जंग तुझही से हारी है ...

दर्द है अश्क़ है लाचारी है 
तेरी दुनिया का हर शक्स एक भिखारी  है 

दिया था तूने जिसे सबको ज़िन्दगी कह कर  
दुखता सीने में अब तलक वही बीमारी है 

किस रात की सियाही से लिखा था तूने 
मेरी किस्मत को सिर्फ ग़म से सरोकारी है 

यह धुँए का है जलन या है कोई और चुभन 
फिर आँखों से निकली तेरी सवारी है 

कोई रहम न कर इतना तो बता मुझको मगर 
क्या मेरी रूह का होना मेरी लाचारी है 

कैसे सम्भलूँ कि गिराया मुझे जब तूने ही 
क्या इसमें भी तेरी कोई मदद्गारी है 

हो जो भी मगर है नहीं शिक़वा तुझसे 
है सुकूँ यही हर जंग तुझही  से  हारी है 

बस दर्द है अफ़साने में ..

ख्वाबों  के  टुकड़े  है हक़ीक़त  के सिरहाने  में 
छूट  सा जाता है कुछ  हर पल के बीत जाने  में 

क्या कहूँ किस बात  से हूँ बिखरा बिखरा 
उम्र  बीती है मेरी खुद को समझ पाने  में 

आज फिर से कई उंगलियां  उठी होंगी 
जो दुआ दी है मैंने दिल से इस ज़माने में 

वो समझते रहे ये भीड़ मेरे जश्न की है 
मै  भटकता ही रहा शहर के वीराने  में 

कोई और भी रोता है कुछ मेरी ही तरह 
आज मालूम हुआ देखा जो इस आईने  में 

कोई रिश्ता तो होगा  दिल  का अंधेरों से 
वार्ना कुछ ख़ास नहीं है दिया जलाने में 

हर एक लफ्ज़ को अपने  से कोई रंग ना  दो 
कुछ भी नहीं बस दर्द है अफ़साने  में 

Friday 17 July 2015

कब लौटेगा घर ?

चार  पलों  का  है  अफ़साना 
या  हर पल कुछ खोना  पाना 
ढूंढ  नया कोई रोज़ बहाना 
जी लेता दिन भर 
है अंतहीन  सा  सफर 
तू कब लौटेगा घर ? 

आज जो कुछ भी पास नहीं है 
उसकी कल भी आस नहीं है 
धूप का भी एहसास  नहीं है 
चलता है दिन भर 
है अंतहीन  सा  सफर 
तू कब लौटेगा घर ? 

बस सपनों से बातें करना 
इतिहासों  का रंग बदलना 
और कभी आँखों से भरना 
मन का गहरा सागर 
है अंतहीन  सा  सफर 
तू कब लौटेगा घर ? 

हाथ  लिए एक सूखा प्याला 
रोज़ पहुँचता है मधुशाला 
मन कहता कोई आनेवाला 
देगा उसको भर 
है अंतहीन  सा  सफर 
तू कब लौटेगा घर ? 

Sunday 12 July 2015

क्यों रोता है मन ?

खोज  कोई  निर्जन सा कोना 
क्यों  रोता है  मन ?
इस  भीड़ के कोलाहल  में  भी 
क्यों  भीगे  तेरे  नयन ?

जो  टूटा था  बस  सपना  था 
या  छूटा  कोई  अपना  था 
मुझमे  मुझसा  कुछ नहीं रहा 
यह कहता है  दर्पण 
इसलिए  रोता  है मन 

आज उन्ही  सपनों  को सींचे 
दौड़  रहा मन आँखें मीचे 
ह्रदय -विदीर्ण  कुछ इतिहासों  से 
मिला है  आमंत्रण 
इसलिए रोता है है मन 

तुझ में मेरा कुछ  अंश  दिखे 
मैं  कुछ तुझ सा  ही हो जाऊं 
तेरी स्वप्न -सदृश  उस दृष्टि को 
है व्याकुल मेरे नयन 
खोज कोई  निर्जन सा कोना 
है रोता यह मन 
भीड़ भरे इस कोलाहल  में 
है भीगे मेरे नयन 

Saturday 11 July 2015

अब का यह सावन ....

© bhaskar bhattacharya

जाने  किस बादल  से  बरसा 
अब  का   यह  सावन 
रिक्त  रही  फूलों  की  क्यारी  
भीगा  अंतर्मन 

दूर  कहीं  उन्मुक्त  गगन  में 
या  भीगे  मन  के  मधुवन  में 
सुदूर  चले  जाने  को क्यों 
ये  ह्रदय  करे क्रंदन 
जाने  किस बादल  से  बरसा 
अब  का   यह  सावन 

वो टूटी मदिरा  की प्याली 
जो  वर्षों  से रही  है खाली 
फिर  भर दी  उसे  अश्रु  जल  से 
© bhaskar bhattacharya
कैसा  पागलपन 
जाने  किस बादल  से  बरसा 
अब  का  यह  सावन 

छिद्र  हुआ है काँटों  से मन 
फिर भी  डाली  कर आलिंगन 
मन  को है उस  स्वप्न-पुष्प  से 
ऐसा  आकर्षण 
जाने  किस बादल  से  बरसा 
अब  का  यह  सावन 

सुप्त  ह्रदय  संताप  मे  क्यों  है 
मन भीषण  प्रलाप  में क्यों है 
है टीस  ह्रदय  की  या  फिर  है ये 
स्वप्नों  का खण्डन 
जाने  किस बादल  से  बरसा 
अब  का  यह  सावन 
रिक्त  रही  फूलों  की  क्यारी  
भीगा  अंतर्मन 

Tuesday 7 July 2015

खण्डहर

© bhaskar bhattacharya
सुदूर पर्वत  शिखर पर 
उस टूटे खड़े  खण्डहर  को देख 
सपनों  मे  खिलता है 
उसकी आशओं  का  वृक्ष 
उसकी  मृगतृष्णा  का  स्वरुप 
कि  आएगा  फ़िर  यौवन  का  बसंत 
सजाएगा  उसे दुल्हन की  तरह 
नाच  उठती  है हर ईंठ 
नींव  से  आती  है मन  की कंपन 
पथरीली  दीवारों  में संवेदना  संचार 
शुष्क  अधरों  पर  हंसी  का  हार 
कि  अचानक  वो  बसंती हवा  आती है 
उसे  झकझोर  कर चली जाती  है 
कुछ  पुरानी  सी  मिटटी  उड़ती  है 
और मिटटी में  मिल  जाती है 
मिटटी की  तरह 
मैं  उसे  देखता  हूँ , सोचता हूँ 
वो भी है कुछ मेरी  तरह 

Wednesday 1 July 2015

सफर...

© bhaskar bhattacharya
मुश्किलों का ये है सफर 
काँटों भरी हर राह है 
जो है हौसला 
तो साथ चल
मुझे जूझने की चाह है 

आगे सियाही रात है 
आंधी और बरसात है 
हर मोड़ पर 
खतरों की अब 
मुझको नहीं परवाह है 
जो है हौसला 
तो साथ चल
मुझे जूझने की चाह है 

बुझदिलों  का सफर नहीं 
यहां  डर की  बहती  बयार  है 
है सिसकियों  
का  सिलसिला 
हर सांस  में  कोई  आह  है 
जो है हौसला 
तो साथ चल
मुझे जूझने की चाह है 

वो सफर कभी 
जो ना ख़त्म हो 
जहाँ मंज़िलों 
कि  ना हो फिकर 
ये सफर दिलों 
के है दरम्यां 
यहाँ राह ही पनाह है 
जो है हौसला 
तो साथ चल
मुझे जूझने की चाह है 

वो लम्हे

© bhaskar bhattacharya
जो बरसते हैं बेझिझक 
उनकी आखों से अभी 
उन निगाहों के लिए 
लोग तरसते थे कभी 

आज जज़्बात पे भी 
हक़ की बात करते हैं 
जो दर और घर भी 
अपना न समझते थे कभी 

मुश्किल है सफर 
खुद को लिए कांधों पर 
उन राहों से जहाँ 
रोज़ गुज़रते थे कभी 

हर आईने में हुमें 
शक्ल वही दिखती है 
जिसके देखे से कई 
 रंग बदलते थे कभी 

ये दुआ  है कि करम है 
की वो  सब भूल गया 
वो लम्हे जिन्हे हम 
जान समझते थे कभी