Tuesday, 30 June 2015

तुम तक पहुँच पाता नहीं

© bhaskar bhattacharya
कुछ मंज़िलों का डर  है यूं 
मै राह पर जाता नहीं 
हूँ उस मुसाफिर की तरह 
चलना जिसे आता नहीं 

वो ख्वाब थे या था नशा 
जिसने बसाया था शहर 
हर दिन है जश्न जवां यहाँ 
मेहमां कोई आता नहीं 

क्यों फासला है दरम्यां 
इस राह पर ए हमसफ़र 
तुम दूर जा रहे हो या 
चलना मुझे आता नहीं 

ये जुस्तजु जो खुद से है 
ये है सदी का फलसफा 
मुझे इश्क़  है  मेरे  अश्क़ से 
मैं खुद से कह पाता नहीं 

हूँ और भी कुछ चाहता 
पढ़ना किताब -ए - दर्द  से 
तुम चाँद पर बैठे हो मैं 
तुम तक पहुँच पाता  नहीं 

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