© bhaskar bhattacharya
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मै राह पर जाता नहीं
हूँ उस मुसाफिर की तरह
चलना जिसे आता नहीं
वो ख्वाब थे या था नशा
जिसने बसाया था शहर
हर दिन है जश्न जवां यहाँ
मेहमां कोई आता नहीं
क्यों फासला है दरम्यां
इस राह पर ए हमसफ़र
तुम दूर जा रहे हो या
चलना मुझे आता नहीं
ये जुस्तजु जो खुद से है
ये है सदी का फलसफा
मुझे इश्क़ है मेरे अश्क़ से
मैं खुद से कह पाता नहीं
हूँ और भी कुछ चाहता
पढ़ना किताब -ए - दर्द से
तुम चाँद पर बैठे हो मैं
तुम तक पहुँच पाता नहीं
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