© bhaskar bhattacharya
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उनकी आखों से अभी
उन निगाहों के लिए
लोग तरसते थे कभी
आज जज़्बात पे भी
हक़ की बात करते हैं
जो दर और घर भी
अपना न समझते थे कभी
मुश्किल है सफर
खुद को लिए कांधों पर
उन राहों से जहाँ
रोज़ गुज़रते थे कभी
हर आईने में हुमें
शक्ल वही दिखती है
जिसके देखे से कई
रंग बदलते थे कभी
ये दुआ है कि करम है
की वो सब भूल गया
वो लम्हे जिन्हे हम
जान समझते थे कभी
Bahut hi badiya sirji...so nice to see u writing....safar chalne dijiye...
ReplyDeleteBahut hi badiya sirji...so nice to see u writing....safar chalne dijiye...
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