Friday 3 June 2016

एहसास ......

देखता हूँ तुम्हे , बस तुम्हे ही 
ये नज़रों का फ़रेब  नहीं 
हक़ीक़त है जिसे जीता हूँ 
गुज़रता हूँ जिसमे मैं 
वक़्त के साथ ,वक़्त की तरह 

ढलती हुई दोपहरी की 
उतरती हुई धूप  हो 
या फिर शाम से सजी हुई 
पहाड़ों की चोटियां 
हो ओस में भीगी सी सुबह 
या धुंद  में छिपी रात 
हर वक़्त ,हर घड़ी , हर पड़ाव 
समय की हार में पिरोया 
हर एक चमकता हुआ पल 
इन सभी में तुमको पाया है 

तुमको देखा है 
खिलते हुए फूलों में 
छुआ है तुमको ही 
बारिश के गिरते पानी में 
महसूस किया है तुमको 
हर सांस के आने में 
और हर जाती सांस में 
ली है रुखसत तुमसे ही 
फिर से मिलने का वायदा लेकर 

सुना है  आवाज़ तुम्हारी 
हवा से हिलते पत्तों से 
लगा था  यूँ  तुम आये हो 
सौंधी खुशबू जब  आई थी 
ग़र सच है यह 
की तुम हो  ही नहीं 
फिर है कैसा यह एहसास  ?
तुम्हारे न होने  में  ही 
तुम्हारे होने का  एहसास 




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