Monday, 5 September 2016

सच या फ़रेब .....

नज़रें दग़ा करती है 
या है शायद यादों का फ़रेब 
जो दिखता है वो सच है ?
या गुज़रे लम्हों की कब्र कोई 

सूखी सी मिटटी उड़ती है 
आँखों को बड़ी चुभती है 
नहीं है अब खुशबू भीनी 
है बस काटों की चुभन 
और थोड़ा सा किरकिरापन 

वो फूल जो गिराए थे कभी 
किसी की रहमदिली लेकर 
हज़ार टुकड़ों में बिखरे हैं 
ले सरसराहट सिहरन से भरी 
बदहाल ही अपने रंग ढूँढ़ते हैं 

अब तो आईना भी झूठा है 
या फिर कुछ मुझसे रूठा है 
बैठा है अश्क़ों की कब्रगाह में 
और मेरी आँखों से 
ख्वाबों का पता पूछता है 


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