Monday, 6 June 2016

मुट्ठी भर हसरतें ....

बस मुट्ठी भर थी हसरतें 
गिरा आया था जिन्हे 
बढ़ाया था जो हाथ कभी 
किसी का हाथ थामने के लिए 

अब हथेली का सूनापन 
दिल से गिला  करता है 
झगडती हैं लकीरें 
उलझती रहती हैं 
किस्मत की राहें सूनी 
उन लडख़ड़ाती लकीरों में 

निगाहें चौंक उठती है अक्सर 
अपना ही अक्स देखकर 
कुछ अंजान सा दिखता अब 
ख़ुद का ही वजूद ख़ुदको 
जिससे पहचान थी कभी 
वो कहीं खो सा गया 

खोला जो  पिंजरा दिल का 
उड़ गया ख्वाबों का परिंदा 
खो गया धुंए के गुब्बारों में 
फिर ना आया कभी 
दिल में घर  बसाने को 
छोड़ गया चंद तिनके गिनकर 
चुभते हैं जो काँटों की तरह 

अब न जलता है चिराग़ 
उठता है अब सिर्फ़ धुआँ 
सन्नाटों की चीख़ भरी 
सर्द हवा बहती हैं 
जिस  आज के ख़ातिर 
कभी अपना कल खोया था 
आज  लगता है कहीं शायद  
मेरा वो कल बीत गया  




2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 06 जनवरी 2018 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

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  2. वाह!!बहुत सुंदर।

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