दर्द है अश्क़ है लाचारी है
तेरी दुनिया का हर शक्स एक भिखारी है
दिया था तूने जिसे सबको ज़िन्दगी कह कर
दुखता सीने में अब तलक वही बीमारी है
किस रात की सियाही से लिखा था तूने
मेरी किस्मत को सिर्फ ग़म से सरोकारी है
यह धुँए का है जलन या है कोई और चुभन
फिर आँखों से निकली तेरी सवारी है
कोई रहम न कर इतना तो बता मुझको मगर
क्या मेरी रूह का होना मेरी लाचारी है
कैसे सम्भलूँ कि गिराया मुझे जब तूने ही
क्या इसमें भी तेरी कोई मदद्गारी है
हो जो भी मगर है नहीं शिक़वा तुझसे
है सुकूँ यही हर जंग तुझही से हारी है
ख्वाबों के टुकड़े है हक़ीक़त के सिरहाने में
छूट सा जाता है कुछ हर पल के बीत जाने में
क्या कहूँ किस बात से हूँ बिखरा बिखरा
उम्र बीती है मेरी खुद को समझ पाने में
आज फिर से कई उंगलियां उठी होंगी
जो दुआ दी है मैंने दिल से इस ज़माने में
वो समझते रहे ये भीड़ मेरे जश्न की है
मै भटकता ही रहा शहर के वीराने में
कोई और भी रोता है कुछ मेरी ही तरह
आज मालूम हुआ देखा जो इस आईने में
कोई रिश्ता तो होगा दिल का अंधेरों से
वार्ना कुछ ख़ास नहीं है दिया जलाने में
हर एक लफ्ज़ को अपने से कोई रंग ना दो
कुछ भी नहीं बस दर्द है अफ़साने में
चार पलों का है अफ़साना
या हर पल कुछ खोना पाना
ढूंढ नया कोई रोज़ बहाना
जी लेता दिन भर
है अंतहीन सा सफर
तू कब लौटेगा घर ?
आज जो कुछ भी पास नहीं है
उसकी कल भी आस नहीं है
धूप का भी एहसास नहीं है
चलता है दिन भर
है अंतहीन सा सफर
तू कब लौटेगा घर ?
बस सपनों से बातें करना
इतिहासों का रंग बदलना
और कभी आँखों से भरना
मन का गहरा सागर
है अंतहीन सा सफर
तू कब लौटेगा घर ?
हाथ लिए एक सूखा प्याला
रोज़ पहुँचता है मधुशाला
मन कहता कोई आनेवाला
देगा उसको भर
है अंतहीन सा सफर
तू कब लौटेगा घर ?
खोज कोई निर्जन सा कोना
क्यों रोता है मन ?
इस भीड़ के कोलाहल में भी
क्यों भीगे तेरे नयन ?
जो टूटा था बस सपना था
या छूटा कोई अपना था
मुझमे मुझसा कुछ नहीं रहा
यह कहता है दर्पण
इसलिए रोता है मन
आज उन्ही सपनों को सींचे
दौड़ रहा मन आँखें मीचे
ह्रदय -विदीर्ण कुछ इतिहासों से
मिला है आमंत्रण
इसलिए रोता है है मन
तुझ में मेरा कुछ अंश दिखे
मैं कुछ तुझ सा ही हो जाऊं
तेरी स्वप्न -सदृश उस दृष्टि को
है व्याकुल मेरे नयन
खोज कोई निर्जन सा कोना
है रोता यह मन
भीड़ भरे इस कोलाहल में
है भीगे मेरे नयन
|
© bhaskar bhattacharya
|
जाने किस बादल से बरसा
अब का यह सावन
रिक्त रही फूलों की क्यारी
भीगा अंतर्मन
दूर कहीं उन्मुक्त गगन में
या भीगे मन के मधुवन में
सुदूर चले जाने को क्यों
ये ह्रदय करे क्रंदन
जाने किस बादल से बरसा
अब का यह सावन
वो टूटी मदिरा की प्याली
जो वर्षों से रही है खाली
फिर भर दी उसे अश्रु जल से
|
© bhaskar bhattacharya
|
कैसा पागलपन
जाने किस बादल से बरसा
अब का यह सावन
छिद्र हुआ है काँटों से मन
फिर भी डाली कर आलिंगन
मन को है उस स्वप्न-पुष्प से
ऐसा आकर्षण
जाने किस बादल से बरसा
अब का यह सावन
सुप्त ह्रदय संताप मे क्यों है
मन भीषण प्रलाप में क्यों है
है टीस ह्रदय की या फिर है ये
स्वप्नों का खण्डन
जाने किस बादल से बरसा
अब का यह सावन
रिक्त रही फूलों की क्यारी
भीगा अंतर्मन
|
© bhaskar bhattacharya
|
सुदूर पर्वत शिखर पर
उस टूटे खड़े खण्डहर को देख
सपनों मे खिलता है
उसकी आशओं का वृक्ष
उसकी मृगतृष्णा का स्वरुप
कि आएगा फ़िर यौवन का बसंत
सजाएगा उसे दुल्हन की तरह
नाच उठती है हर ईंठ
नींव से आती है मन की कंपन
पथरीली दीवारों में संवेदना संचार
शुष्क अधरों पर हंसी का हार
कि अचानक वो बसंती हवा आती है
उसे झकझोर कर चली जाती है
कुछ पुरानी सी मिटटी उड़ती है
और मिटटी में मिल जाती है
मिटटी की तरह
मैं उसे देखता हूँ , सोचता हूँ
वो भी है कुछ मेरी तरह
|
© bhaskar bhattacharya
|
मुश्किलों का ये है सफर
काँटों भरी हर राह है
जो है हौसला
तो साथ चल
मुझे जूझने की चाह है
आगे सियाही रात है
आंधी और बरसात है
हर मोड़ पर
खतरों की अब
मुझको नहीं परवाह है
जो है हौसला
तो साथ चल
मुझे जूझने की चाह है
बुझदिलों का सफर नहीं
यहां डर की बहती बयार है
है सिसकियों
का सिलसिला
हर सांस में कोई आह है
जो है हौसला
तो साथ चल
मुझे जूझने की चाह है
वो सफर कभी
जो ना ख़त्म हो
जहाँ मंज़िलों
कि ना हो फिकर
ये सफर दिलों
के है दरम्यां
यहाँ राह ही पनाह है
जो है हौसला
तो साथ चल
मुझे जूझने की चाह है
|
© bhaskar bhattacharya
|
जो बरसते हैं बेझिझक
उनकी आखों से अभी
उन निगाहों के लिए
लोग तरसते थे कभी
आज जज़्बात पे भी
हक़ की बात करते हैं
जो दर और घर भी
अपना न समझते थे कभी
मुश्किल है सफर
खुद को लिए कांधों पर
उन राहों से जहाँ
रोज़ गुज़रते थे कभी
हर आईने में हुमें
शक्ल वही दिखती है
जिसके देखे से कई
रंग बदलते थे कभी
ये दुआ है कि करम है
की वो सब भूल गया
वो लम्हे जिन्हे हम
जान समझते थे कभी