© bhaskar bhattacharya
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जाने किस बादल से बरसा
अब का यह सावन
रिक्त रही फूलों की क्यारी
भीगा अंतर्मन
दूर कहीं उन्मुक्त गगन में
या भीगे मन के मधुवन में
सुदूर चले जाने को क्यों
ये ह्रदय करे क्रंदन
जाने किस बादल से बरसा
अब का यह सावन
वो टूटी मदिरा की प्याली
जो वर्षों से रही है खाली
फिर भर दी उसे अश्रु जल से
© bhaskar bhattacharya
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जाने किस बादल से बरसा
अब का यह सावन
छिद्र हुआ है काँटों से मन
फिर भी डाली कर आलिंगन
मन को है उस स्वप्न-पुष्प से
ऐसा आकर्षण
जाने किस बादल से बरसा
अब का यह सावन
सुप्त ह्रदय संताप मे क्यों है
मन भीषण प्रलाप में क्यों है
है टीस ह्रदय की या फिर है ये
स्वप्नों का खण्डन
जाने किस बादल से बरसा
अब का यह सावन
रिक्त रही फूलों की क्यारी
भीगा अंतर्मन
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