© bhaskar bhattacharya |
उस टूटे खड़े खण्डहर को देख
सपनों मे खिलता है
उसकी आशओं का वृक्ष
उसकी मृगतृष्णा का स्वरुप
कि आएगा फ़िर यौवन का बसंत
सजाएगा उसे दुल्हन की तरह
नाच उठती है हर ईंठ
नींव से आती है मन की कंपन
पथरीली दीवारों में संवेदना संचार
शुष्क अधरों पर हंसी का हार
कि अचानक वो बसंती हवा आती है
उसे झकझोर कर चली जाती है
कुछ पुरानी सी मिटटी उड़ती है
और मिटटी में मिल जाती है
मिटटी की तरह
मैं उसे देखता हूँ , सोचता हूँ
वो भी है कुछ मेरी तरह
Kya baat hai....wo bhi hai kuch meri tarah...bahut khub!
ReplyDeleteKya baat hai....wo bhi hai kuch meri tarah...bahut khub!
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