Wednesday, 12 August 2015

रंग....

तस्वीर बनाते हो जो तुम 
कई रंगों और ख्यालों के 
देख सके क्या रंग कभी तुम 
रंग बदलने वालों के 

नादान  हो या हो दृष्टिहीन  
जो रंगों में उलझते हो 
बस क्षणभंगुर अभिलाषा है 
तुम जिसको रंग समझते हो 

मन के धवल -कमल  में तुम 
क्यों रंगों को भरते हो 
बस एक छायाभास है वो 
तुम जिसकी आशा करते हो 

जब आये थे तुम रंगहीन 
और कुछ वैसे  ही जाना है 
फिर बेरंग से इस जीवन पर  
क्यों  व्यर्थ का नीर बहाना है 

रंग नहीं होता उनमे 
गिरते जो पुष्प है शाखों से 
है इन्द्रधनु में रंग नहीं 
देखो सूरज की आँखों से 

कोई रंग नहीं है अश्रु का 
और न है हृत्स्पंदन में 
व्यर्थ पड़े हो मोह लिए  
तुम रंगों के इस बंधन में 




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