Monday, 3 August 2015

मन का घरौंदा...

उड़ा लो अपने बादल को 
मुझे धूप झुलसता सहने दो 
मेरा मन का घरौंदा है काफी 
मुझे अपनी धुन में रहने दो 
गूंजती है दीवारों में 
हर दर्द के आहट की कंपन 
हर साँस ठहर सी जाती है 
जब नींव में होता  है स्पंदन 
है रुष्ट अगर घर मुझसे  तो 
उसे यूँ उखड़ा ही रहने दो 
मेरा मन का घरौंदा है काफी 
मुझे अपनी धुन में रहने दो 
इस निर्धन मन का ग्रास  यही 
दो आँखें  पूरा करती है 
है विचित्र यह गागर जो 
बस चक्षुजल से भरती है 
है अश्रु नहीं ये जीवन है 
जो बहता है तो बहने दो 
मेरा मन का घरौंदा है काफी 
मुझे अपनी धुन में रहने दो 

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