Thursday, 27 August 2015

रंग हज़ारों में ...

कैसा है ये खेल तुम्हारा 
ये बुझना जलना कैसा है 
हर दिन नया है चेहरा क्यूँ 
ये वेष बदलना कैसा है
अंदाज़ अनूठा है कुछ यूँ 
कुछ बात छुपी सी रहती है 
कुछ कहते  हो तुम होठों से 
कुछ और ही आँखें कहती है 
आज जो देखा हँसते तो 
लगा था मन भी मुस्काया 
कल देखा उन अधरों पर 
फिर चिंता की कुछ छाया 
यह जीवन ही कुछ ऐसा है 
यहां हर पल रंग बदलता है 
मन पर आखिर इतना क्यूँ 
रंगों का काबू चलता है 
ख़ास मगर हो तुम ऐसे 
दिखते जो रंग  हज़ारों में 
कला ये जलने बुझने की 
होती बस है सितारों में 


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