Monday, 31 August 2015

रात का चिराग़ ....

निखरा हुआ है धूप से  तेरे घर का जो आँगन 
एक रात के चिराग़ का जलता है तन बदन 

बात और है कि उसे कुछ गिला नहीं
वैसे हुए हैं रोज़ कई उस पर नए सितम 

बेज़ुबान है वो भी कुछ तेरे अश्क़ की तरह 
ज़हन  में नमी है आज सीने में है जलन 

तेरे सूनेपन की गोद में जलता है बेख़बर 
वो चिराग़ बेखुदी का है या है दीवानापन 

गूंजी थी शाम महफ़िल तेरी तारीफें लिए 
 देखी न किसी ने आँख भर चिराग़ का जतन 

मरता है कुछ इस तरह तेरी निगाह के लिए 
बुझकर भी बनता है तेरे काजल का कालापन 

कह दे कोई उसे की है उसे बस दर्द ही हासिल 
ये आग की तपिश नहीं दुनिया का है चलन 




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