यूँ चली थी कुछ हवा
कि लब पे लफ्ज़ रुक गए
वो सामने ही थे मेरे
मगर मुझे पता नहीं
कोई महक सी आई थी
पतझरों के बाग़ से
वो खिलते ही बिखर गयी
कहाँ था मैं पता नहीं
सूखी नदी की गोद में
जो लहर सी उठा गयी
वो किसके कद्म-ए-शोख़ थे
वो कौन था पता नहीं
जो एक सदी से था बुझा
सियाह की आग़ोश में
जल उठा चिराग़-ए-दिल
क्या आग थी पता नहीं
नज़र मिलाते थे कभी
जो आईने से हर घड़ी
आज उसी निगाह को
है खुद से वास्ता नहीं
चला तो था वो कारवां
ग़म-ए-दिलों के दरम्या
वो मंज़िलें वो रास्ते
गए कहाँ पता नहीं
वो चंद ख़्वाब ही तो थे
है जिनके अक्स अश्क़ में
हाँ ख़्वाब देखता था मैं
वो ख़्वाब थे खता नहीं
कि लब पे लफ्ज़ रुक गए
वो सामने ही थे मेरे
मगर मुझे पता नहीं
कोई महक सी आई थी
पतझरों के बाग़ से
वो खिलते ही बिखर गयी
कहाँ था मैं पता नहीं
सूखी नदी की गोद में
जो लहर सी उठा गयी
वो किसके कद्म-ए-शोख़ थे
वो कौन था पता नहीं
जो एक सदी से था बुझा
सियाह की आग़ोश में
जल उठा चिराग़-ए-दिल
क्या आग थी पता नहीं
नज़र मिलाते थे कभी
जो आईने से हर घड़ी
आज उसी निगाह को
है खुद से वास्ता नहीं
चला तो था वो कारवां
ग़म-ए-दिलों के दरम्या
वो मंज़िलें वो रास्ते
गए कहाँ पता नहीं
वो चंद ख़्वाब ही तो थे
है जिनके अक्स अश्क़ में
हाँ ख़्वाब देखता था मैं
वो ख़्वाब थे खता नहीं
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