कैसे कहूँ ये तुमसे कि क्या हो तुम मेरे लिए मैंने तो खुद को पाया है तुम्हे ही तलाशते हुए सुना है दिल से निकलते हुए बेज़ुबान बातों के सिलसिले वो बातें मेरी ख़ामोशी से बातें, तुम्हारी आवाज़ लिए मैंने देखा है तुम्हे आखों की रौशनी की तरह देखा है तुम्हे चांदनी बनकर मेरे आँगन को जगमगाते हुए अब भी घेर लेते हो मुझे नाज़ुक सा रेशमी जाल लिए तुम्हारी खुशबू में लिपटी हवाएं समाती है मुझमे साँसें बनकर इसलिए बेबाक़ सा हूँ क्या कहूँ ? कैसे बताऊँ तुमको खो चूका हूँ मैं तुम में शायद कि दिखता हूँ खुद को सिर्फ तुम्हारे आँखों के आईने में हर नज़्म , हर ग़ज़ल हर लफ्ज़ लिखे हुए हर अलफ़ाज़ मेरे नाकाबिल है सब तुम्हारे लिए कैसे कहूँ ये तुमसे कि क्या हो तुम मेरे लिए
साथ लाया हूँ क्या ? चाय की एक प्याली खाली और एक तश्तरी बातें सिर्फ बातें, तुम्हारी कही हुई मेरी सुनी हुई बातें शायद कुछ अनकहे ,अनसुने लफ़्ज़ों के सिलसिले भी जो दिल से निकले तो थे पर लबों से छूट न सके शोर है शायद तुम्हारी उन्ही बातों का कि मुश्किल है अब खुद का खुद को सुन पाना याद है अब भी मुझे बातें तुम्हारी आँखों से कही मेरा उलझना उन बातों में और आँखों में खो जाना आज भी हूँ कुछ खोया सा या फिर रह गया है पीछे तुम्हारी अनकही बातों की तरह खामोशियों से लिपटा हुआ यादों की सिलवटों में शायद साथ रह गया है तुम्हारे एक टुकड़ा वजूद मेरा साथ है कुछ तुम्हारा तो बस चाय की वो प्याली खाली और एक तश्तरी बातें
लहरों पर सवार तुम आते हो फिर समंदर में समा जाते हो हँसकर पूछते हो मुझसे क्यों रेत का महल बनाते हो ? पूछते हो क्या राज़ है भला क्या है हासिल इस खेल से मुझे क्यों बनाता हूँ महल मशक्कत से क्या सिर्फ लहरों में बहाने के लिए ? बेबाक़ सा रह जाता हूँ मैं बस देखता हूँ तुम्हे आते जाते मुददतों से देखा है मैंने तुम्हे मेरा रेत का महल साथ ले जाते है रेत के बने मेरे ही दिल की तरह भीगे है अब तलक तुम्हारी लहरों से वही दिल की जिसमे अब भी उठा करते हो बह चलते हो फिर बेज़ुबान आँखों से ये महलें रंग है मेरे अरमानों का इनमे है शक्ल हूबहू मेरे सपनों की सपने जहाँ तुम से मिला था मैं कभी और खो दिया जो कुछ मेरा अपना था इसलिए रेत के महलों को मैं बनाता हूँ और फिर मैं इन्हे लहरों में बहाता हूँ क्या करूँ इतना तुम्हे जो चाहता हूँ घुलके तुममे तुम्हारे साथ चला जाता हूँ
कौन हो तुम ? घिर आए मेरे आँगन में घने बादल बनकर सालों से रूखा पड़ा है घर , और किरायदार भी डराते हो क्यों ? किसी बेमौसम के बारिश से कौन हो तुम ? जो उड़ाते हो सूखे पत्तों को गिरे थे जो कभी फलदार किसी दरख़्त से ये अकेला सा चिराग़ घबराया सा है देखकर क्यों डराते हो उसे तूफ़ान से ? कौन हो तुम ? ले आते हो शोर बाज़ारों की यहां साँसों के सिवा किसी आवाज़ से सरोकार नहीं सो रहे हैं बड़ी देर से कुछ अरमां राज़ की चादर ओढ़े क्यों उन्हें अब नींद से जगाते हो ?
हर तरफ शोर है कसीदों का तेरे हुस्न के चर्चे हैं बहुत एक मैं ही हूँ जो आज तलक बैठा हूँ, कोरा सा कागज़ लिए इस सोच में लगायी सदियाँ मैंने क्या लिखूँ ?जो कि तेरे लायक हो शायरी तो तेरी आँखों में पढ़ी थी कभी चुरा ली थी तभी तेरी बेखबरी में चंद लफ्ज़ मैंने तेरी ख़ामोशी से दराज़ो में अब वो भी नहीं है शायद कुछ बह गए थे आँखों के सैलाब में कुछ दफ़्न है सीने में ख़ामोशी ओढ़े क्या लिखूँ कुछ सूझता नहीं मुझको तेरी नज़रों को किस निगाह से देखूं मैं कैसे कर दूँ बयां रंगत तेरे चेहरे की बेरंग सी महज़ कोरे किसी कागज़ पर तेरी आँखों में देखा है जो आसमां मैंने उसे अल्फ़ाज़ों में किस तरह मैं कैद करूँ सदा रहेगी ये कमी मेरे फ़न में शायद तेरे मुरीदों में कभी मैं न गिना जाऊँगा है मेरे पास नहीं कोई ग़ज़ल काबिल तेरे न है कोई लफ्ज़, तेरे बारे में जो बोल सके तुझमे देखा है मैंने ज़िन्दगी को जीते हुए मुर्दे अल्फ़ाज़ों से मैं क्या लिखूँ मुझको ये बता
धड़कन, ज़रा आहिस्ता चल लम्बा है सफर तेरा कहीं थक ना जाये कल तेरे दिल के कश्म्कश की है चेहरे पर कई निशानी चाहे वो अपने से रूखापन हो या हो आँखों से बहता पानी तेरे उलझनों में लिपटा हुआ ख्यालों का ताना-बाना और बेसबब बेकरारी का हर वक़्त आना जाना ये निशानियाँ सभी है कहती तुझे भी दर्द होता है कभी कहीं कुछ टूटा है जो चुभता है और तेरी ख्वाबों की माला तमाम राह पर बिखरा है लगता है तू भी कभी गिरा है गिरके उठने का हुनर है तुझमे फिर भी ये इल्तिजा मैं करता हूँ घायल से इस दिल पे एहसान सा कर दो घढ़ी रुक,ले सुकून के कुछ पल तेरी चोट है नयी अभी संभल ,ज़रा आहिस्ता चल
ये दूरियां, ये फ़ासले है महज़ आँखों का फ़रेब आज ये जाना मैंने देखा जो दूरियों की अगन और इन फासलों की चुभन इनमे सिर्फ तुम हो कोई और नहीं कौन है जिसे सब हमसफ़र समझते हैं ? वो जिस्म जो की साथ-साथ चलता हो ? या फिर मैं ही हूँ दुनिया से यूँ बेगाना सा मैं तो अकेला भी तुम्हे साथ लिए चलता हूँ क्या कहूँ कितने हो करीब मेरे यूँ समझ लो की मुझमे ही तुम रहते हो दीवार-ओ-दर की तो बस लोगों को ज़रुरत होगी तुम तो धड़कन हो मेरे दिल में रहा करते हो मैंने समझा है आज इन दूरियों के इशारे को ले जाती है ये भी तुम्हारी ही तरफ फासले बेअसर से लगते हैं जो फासलों के पार मुझको तुम ही दिखते हो
अजीब है कुछ यादों की बस्तियां न तुम हो वहाँ और न मैं हूँ और न है फ़ासला दरम्यां हमारे कुछ पुराने कागज़ सिलवट भरे मिटती हुई सियाही से लिखे कांपते हाथों की लिखावट दिल की धड़कनों की आवाज़ लिए पुरानी धूल में दबे हुए कुछ तस्वीरों के टुकड़े हैं अक्स है उनमे तुम्हारी सी और कुछ मुझ जैसी लगती है इनमे ही बिखरा है वजूद यूँ बिखेरा है वक़्त की उलझन ने है नामुनासिब जोड़ पाना उन्हें लौट आता हूँ कई बार अब भी ज़हन की अँधेरी सी गलियों में मुझसे मिलने के बहाने तुम्हे तलाशते हुए हाँ तुम, जिसमे खुदको पाया था कभी वही तुम जो आज नहीं ज़ाहिर या वो तुम , जो कभी थे ही नहीं
जाने क्यों भटकता है मन बेसबब ,बेवजह बेताबी लिए वक़्त की अंधी गलियों में उस पुराने से घर को ढूंढता जिसके दीवार पर लटकती होंगी दो आधी तसवीरें मेरी, तुम्हारी यादों में जहाँ साथ तुम्हारे खुद को भी बिताया था कभी क्या पता क्या कशिश थी वो जो अब भी चले आते हो तुम कभी आँखों में पानी कभी हलक में प्यास बनकर वो रुक्सत भी अजीब थी जो चले आये तुम साथ मेरे बन के मेरा सूनापन और मिलने की कयास बनकर ये अदा है पुरानी तुम्हारी नज़रों से खेलने का फ़न नज़र आना और छुप जाना बादल और चाँद की तरह यादों की लुका-छिपी का खेल तुम्हे अब भी खूब आता है यूँ लगता है खो जाना तुम्हारा और मेरा ढूंढना तुम्हे भाता है मेरा क्या ? मैं आज भी वैसा हूँ आँख टिकाये वक़्त के मोड़ों पर अब भी बैठा रहता हूँ बेख़बर बेसब्री भरे इंतज़ार के पल लिए कुछ नहीं बदला है मेरे हिस्से में तबदीली न तुम में ही कुछ आई है तुम ,मैं और लुका-छिपी का खेल बस अब यादों में सिमट आई है
सुनहली धूप में नहायी सी एक शाम से पूछा मैंने ये खिली खिली सी रौशनी है मुस्कराहट तुम्हारी ? या छुपाती हो मुझ गैर से दर्द कोई अपना सा ये उलझे हुए बादलों का जाल बिखरे केसुओं की तरह है लटों पर हवा का असर ? या फिर है किताब कोई लिखते हो जिस पर रोज़ कोई अपनी उलझनों का ताना-बाना ये मध्यम सी चलती हवा है साँसें तुम्हारी अलसायी सी ? कुछ अधजगी नींद में कुम्हलाई सी या फिर है इशारा कोई जो करे बयाँ कल का बीता सफर थके से हो उस सफर से तुम शायद ये गिरता हुआ सिंदूरी सूरज है रंगीन ख्वाबों सा चेहरा तुम्हारा ? या निगाहें झुकती हुई शर्मायी सी या फिर है यही अदा तुम्हारे रूठने की खुद में सिमटे हुए नींद की तालाश में जो देख सको रात नया ख्वाब कोई
बेवजह बेरुखी कैसी ? रुख़ पर नया नकाब है क्यूँ आँखों में सितारों की चमक पर छुपा सा आफ़ताब है क्यूँ ? छिपाते हो क्या ? इन बेज़ुबां आँखों से कि देखा है इन्होने अक्सर तुम्हारे चेहरे का उगता सूरज और आँखों में शाम ढलते हुए तुम्हारी रंगत से खौफ खाए बहारों को रंग बदलते हुए क्या हो ख़फ़ा ? मुझसे या चाहत से मेरी मेरे जज़्बात के पैमाने में क्या रह गयी थी कभी कोई कमी चाहने में झलक चाह की थी या फिर थी चाहत में परश्तिश की , इबादत की कमी फिर राज़ है क्या ? क्यों ले चले हो साथ मुझे अपने अंदाज़ की पहेली में जिसमे उलझे हैं रेशम के कई धागे होठों की सिलवटों में सवाल कई आँखों से बुनी ख्वाब भरा जाल कोई कोई भी जहाँ रोज़ उलझना चाहे बेवजह बेरुखी कैसी ? रुख़ पर नया नकाब है क्यूँ आँखों में सितारों की चमक पर छुपा सा आफ़ताब है क्यूँ ?
हाथ लिए पैमाने को क्यों इतना सोचा करते हो ये यादों का मयखाना है क्यों खुद को रोका करते हो है नशा यहां बीते कल का उस साथ का जो की छूट गया यहां ख्वाब है जागी आँखों के और वो सपना जो टूट गया हर शक़्स यहां दिलवाला है दिलकश यहां का मेला है रिन्दों की इस भीड़ में भी हर मयक़श यहां अकेला है अश्क़ों में भीगे चेहरे है है अरमानों का दर्द यहां फरेब नहीं है मगर कोई हर इंसा है हमदर्द यहां ना दाग किसी पर लगता है न बात किसी की होती है भर बाहों में बस याद कोई मासूम सी आँखें रोती है ये कहकर कुछ भी याद नहीं अपने से धोखा करते हो ये यादों का मयखाना है क्यों खुद को रोका करते हो
ले चलो साथ मुझे वक़्त के उसी जगह छोड़ा था तन्हा जहाँ बस तुम्हारी याद लिए समाये थे तुम साँसों में खिलते गुलों की महक लिए पुरवाईयों की पालकी पर जब चले थे तुम हवा बनकर था साथ हो चला मैं भी कपास के फोय की तरह अब तक न जान पाया हूँ किस ओर चला आया हूँ है कौन सी राहें ऐसी तुम तक जो न आ पाती हैं छोड़ा था कहाँ तुमने मुझे चुराके मुझ ही को मुझसे क्यों तुम ऐसा करते हो मेरी आँखें रोज़ भरते हो झांको कभी इन आँखों में अपना ही चेहरा पाओगे मिलना है तुमसे ख्वाबों में कब तक मुझे जगाओगे दिखा दो राह अब मुझको आँखों में आफ़ताब लिए खड़ा हूँ मैं चौराहे पर बस तुम्हारी याद लिए
वक़्त रुकता नहीं घड़ियाँ थमती नहीं थकी साँसों के मानिंद निकलती चली जाती है है देखा मगर जो मैंने गुज़रते वक़्त के काफिले में कुछ पल पहचाने हुए से बगैर रफ़्तार थमे हुए से दिल के कोने में जमे हुए से ओस की बूदों सी हसीन धुंद की चादर ओढ़े उन पलों में आज बेसबब खुद को खो जाते देखा हाँ, आज फिर तुम्हे आते देखा वो घड़ियाँ, या की सदियाँ थी जो बीते थे इंतज़ार में वो साँसों की गिनतियाँ ताज़ा है ज़हन में आज भी वो रफ़्तार धड़कनों की और ख्यालों का खालीपन तुम्हारे ना होने में तुमसे नज़दीकियों का एहसास सोच कर तुम बेवजह फिर रूठी हो आज अपने दिल को मनाते देखा हाँ, आज फिर तुम्हे आते देखा मगर वक़्त है, वो रुकता नहीं चला जाता है किसी और गली देकर वही रुक्सति की तड़प और सदियों का सूनापन कुछ हिज्र की तपिश और यादों का सुकून लिए फिर वीरान पड़े चौराहे पर रुके पलों का गुलदस्ता लिए राहों को सजाते देखा हाँ, आज फिर तुम्हे आते देखा
बस एक टुकड़ा धूप का और आधी प्याली बारिश मेज़ पर बिखरे हैं कुछ हाथों से लिखे ख़त कुछ मेरे, कुछ तुम्हारे और कुछ में शायद हम कुछ यादों के पन्ने हवा में सरसराते हुए जैसे की दास्ताँ तुम्हारी मुझसे दोहराते हुए कुछ में दिखती है वही दिल को छूंती तुम्हारी हँसी कुछ में मुस्कान वो झूठी सी, दर्द को छिपाती हुई तुम्हारी लिखावटों में आज भी वही चेहरा है जिसे पढ़ लेता था कभी लफ्ज़-बा-लफ्ज़, हूबहू यूँ लगता है तुम आज भी वैसी ही हो, पहले जैसी बिलकुल इन ख़तों की तरह हज़ारों अल्फ़ाज़ों की बनी कुछ उलझी -सुलझी पहेली सी नहीं बदला है यहां भी कुछ मेरे ख्यालों के इस आलिन्द में वही धूप का सुनहला टुकड़ा और बारिश की आधी प्याली है करो यकीं कि अब भी देखता हूँ तुम्हे उसी कुर्सी पर, जो आज भी खाली है
ये शाम यूँ उदास क्यों है कई बार पहले भी है हुआ ऐसा कुछ नया तो नहीं है खोने में फिर आज भारी है क्यों मन क्यों साफ़ महसूस है वो फ़र्क़ किसी के होने और न होने में बातें, जो तन्हाई से करी थी कभी हर एक लफ्ज़ और मायने उनके मुश्किल है समझना आज क्यों या फिर समझा पाना खुदको वो आवाज़, वो लफ़्ज़ों के सिलसिले वो बातों का सजिलापन वो विषयों की पेंचीदगियाँ सब कुछ एक पहेली सी लगती है क्या हुआ अचानक कि आज तन्हाई में है अकेलेपन की कसक यूँ तो खुद ही खुद से की थी कई मुलाकातें हसरतों भरी सुनी थी खुद से ख़्वाबों की कहानी खुद के अल्फ़ाज़ों में खुद की ज़ुबानी फिर आज बेरंग सा क्यों दिखता हूँ मैं रूबरू खुद से क्यूँ लगता है खुद की महफ़िल में खुद ही से रूठा हूँ मैं क्यों है बेसबब बेबसी की हवा ऐसी की उड़ा रही है आहिस्ता से दिल पर जमी धूलों की परत क्या है सबब है किस कमी का असर डरा सा है ज़हन रूह बदहवास क्यों है क्या पता ये शाम यूँ उदास क्यों है
लो उड़ चला परिंदा उस टोह की कशिश में जहाँ छाँव हो घड़ी भर हर धूप की तपिश में भले न हो सजीला और ना ही कोई घर हो मगर खुले वहाँ पर बस दिलों के दर हो न ख़ुशनुमा हो मौसम ना हो हवा रूमानी दिखे मगर सभी को आँखों का बहता पानी हो मुफलिसी का आलम या मुश्किलों का डेरा मगर हो तय जहां पर हर रात का सवेरा ना चांदनी में लिपटे हो रात के सितारे दिलक़शी के काबिल भले न हो नजारें वो ढूंढता है घर जो बदहाल ही भले हो मगर वहाँ दिलों के कुछ दीप तो जले हो है सोचता परिंदा वो टोह कुछ जुदा हो ना मोह की बनी हो उस टोह में खुदा हो
हसरतों का सावन हर आँख से बरसता ये क्या शहर है तेरा हर शख़्स है तरसता वो हाथ लेके आंसू चला है ग़म भुलाने मगर उसे मिलेंगे बस बेरुखी के ताने ये शहर ही है कुछ ऐसा न कोई है किसी का हर दोस्त के शक्ल में रकीब है किसी का है संग्दिलों की बस्ती इन्हे दिलों से क्या है लफ्ज़-ए-फ़रेब में ही हर वाक़या बयाँ है कोई नहीं मिलेगा यहाँ सुकून दे जो वो निग़ाह ही नहीं है हमदर्द से उठे जो बस धुप में झुलसता इक टूटे दिल का हिस्सा है न गैर की कहानी है इसी शहर का किस्सा
In silence abyss no words to say The worldly thoughts have gone astray In pristine light at end of day A lonely heart kneels down to pray In shroud of dusk and no one near He lights up faith along with fear In whispering sounds no one can hear He sheds a smile and drops of tear In remains of what were fame and pride With a stash of honour strewn aside He closes eyes for grief to hide And weeps to the winds of countryside With drooping eyes and folded hands Kneeling down on scorching sands He tells the mind what heart demands Some stream to feed the barren lands For dried up well of an earthly eye He prays for rains from rusty sky To the parting breath in a silent sigh He asks to leave with a passer by Thus everyday with hopes anew In dawn and dusk for moments few With heart devoid of shade and hue He just kneels down and prays for you
फिर हो कोई नया सवेरा फिर से कोई शाम ढले जी लें फिर बीते कल को चलो अतीत के गाँव चलें नव यौवन के शाखों पर फिर कलियाँ भरमार खिलें और भँवरों की गुंजन में वो बिसरे कल के गीत मिले चलो पुरानी यादों में हम फिर नए कुछ ख्वाब चुने फिर आँखों से बात करें और सपनों का जाल बुने फिर से चलें उन राहों पर जहाँ अपनी ना पहचान रहे खो जाएँ फिर बातों में ना समय का कोई ध्यान रहे फिर मध्यम सी बारिश हो भीगे फिर से अन्तर्मन फिर हम तुम खामोश रहें और सुने हृदयों का प्रतिस्पंदन मैं और तुम हम जैसे हो एक बार चलो फिर साथ चलें जी लें फिर बीते कल को चलो अतीत के गाँव चलें
है कश्मकश ये ज़िन्दगी पेंचीदगी भरी हुई जियें इसे तो किस तरह ये सोचता हूँ मैं अभी रस्में यहाँ अजीब है दिखता जो करीब है वही जुदा ख्यालों से ये देखता हूँ मैं अभी कभी हवा है नर्म सी और तीर की तरह कभी दे जो ज़ख्म रूह को घायल पड़े यहाँ सभी ना किसी की चाह में और न ख्वाबगाह में रहना है हसरतें लिए बस अश्क़ की पनाह में जज़्बात की है मुफलिसी गुमशुदा ईमान है पत्थरों के बुत से है बस नाम के इंसान है अपना नहीं है कुछ यहाँ और न कोई पास है मगर हूँ यूँ मैं ख़ुशफ़हम की ज़िन्दगी की आस है