Monday, 14 September 2015

यादों का मयखाना ...

हाथ लिए पैमाने को 
क्यों इतना सोचा करते हो 
ये यादों का मयखाना है 
क्यों खुद को रोका करते हो 

है नशा यहां बीते कल का 
उस साथ का जो की छूट गया 
यहां ख्वाब है जागी आँखों के 
और वो सपना जो टूट गया 

हर शक़्स यहां दिलवाला है 
दिलकश यहां का मेला है 
रिन्दों की इस भीड़ में भी 
हर मयक़श यहां अकेला है 

अश्क़ों में भीगे चेहरे है 
है अरमानों का दर्द यहां 
फरेब नहीं है मगर कोई 
हर इंसा है हमदर्द यहां 

ना दाग किसी पर लगता है 
न बात किसी की होती है 
भर बाहों में बस याद कोई 
मासूम सी आँखें रोती है 

ये कहकर कुछ भी याद नहीं 
अपने से धोखा करते हो 
ये यादों का मयखाना है 
क्यों खुद को रोका करते हो 

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