Thursday, 17 September 2015

रेत का महल....

लहरों पर सवार  तुम आते हो 
फिर समंदर में समा जाते हो 
हँसकर  पूछते हो मुझसे 
क्यों रेत का महल बनाते हो ?

पूछते हो क्या राज़ है भला 
क्या है हासिल इस खेल से  मुझे 
क्यों बनाता हूँ  महल मशक्कत  से 
क्या सिर्फ लहरों में बहाने के लिए  ?

बेबाक़ सा रह जाता हूँ मैं 
बस देखता हूँ तुम्हे आते जाते 
मुददतों से देखा है मैंने तुम्हे 
मेरा रेत का  महल साथ ले जाते 

है रेत के बने मेरे ही दिल की तरह 
भीगे  है अब तलक तुम्हारी लहरों से 
वही दिल की जिसमे अब भी उठा करते हो 
बह चलते हो फिर बेज़ुबान आँखों से 

ये महलें रंग  है मेरे अरमानों का 
इनमे है शक्ल हूबहू मेरे सपनों की 
सपने जहाँ तुम से मिला था मैं कभी 
और खो दिया जो कुछ मेरा अपना था 

इसलिए रेत के महलों को  मैं बनाता हूँ 
और फिर मैं इन्हे लहरों में बहाता हूँ 
क्या करूँ  इतना तुम्हे जो चाहता हूँ 
घुलके तुममे तुम्हारे साथ चला जाता हूँ 







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