Monday, 14 September 2015

कुछ सवाल शाम से...

सुनहली धूप में नहायी सी 
एक शाम से पूछा मैंने 
ये खिली खिली सी रौशनी 
है मुस्कराहट तुम्हारी ?
या छुपाती हो मुझ गैर से 
दर्द कोई अपना सा 

ये उलझे हुए बादलों का जाल
बिखरे केसुओं की तरह  
है लटों पर हवा का असर ?
या फिर है किताब कोई 
लिखते हो जिस पर रोज़ कोई 
अपनी उलझनों का ताना-बाना 

ये मध्यम सी चलती हवा 
है साँसें तुम्हारी अलसायी सी ?
कुछ अधजगी नींद में कुम्हलाई सी 
या फिर है इशारा कोई  
जो करे बयाँ कल का बीता सफर  
थके से हो उस सफर से तुम शायद 

ये गिरता हुआ सिंदूरी सूरज 
है रंगीन ख्वाबों  सा चेहरा तुम्हारा ?
या निगाहें झुकती हुई शर्मायी सी 
या फिर है यही अदा तुम्हारे रूठने की 
खुद में सिमटे हुए नींद की तालाश में 
जो देख सको रात नया ख्वाब कोई 




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