
है महज़ आँखों का फ़रेब
आज ये जाना मैंने
देखा जो दूरियों की अगन
और इन फासलों की चुभन
इनमे सिर्फ तुम हो
कोई और नहीं
कौन है जिसे सब
हमसफ़र समझते हैं ?
वो जिस्म जो की
साथ-साथ चलता हो ?
या फिर मैं ही हूँ
दुनिया से यूँ बेगाना सा
मैं तो अकेला भी
तुम्हे साथ लिए चलता हूँ
क्या कहूँ कितने हो करीब मेरे
यूँ समझ लो की
मुझमे ही तुम रहते हो
दीवार-ओ-दर की तो बस
लोगों को ज़रुरत होगी
तुम तो धड़कन हो
मेरे दिल में रहा करते हो
मैंने समझा है आज
इन दूरियों के इशारे को
ले जाती है ये भी तुम्हारी ही तरफ
फासले बेअसर से लगते हैं
जो फासलों के पार
मुझको तुम ही दिखते हो
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