Monday, 14 September 2015

छुपा सा आफ़ताब....

बेवजह बेरुखी कैसी ?
रुख़  पर नया नकाब है क्यूँ 
आँखों में सितारों की चमक 
पर छुपा सा आफ़ताब है क्यूँ ?

छिपाते हो क्या ?
इन बेज़ुबां आँखों से 
कि देखा है इन्होने  अक्सर 
तुम्हारे चेहरे का उगता सूरज 
और आँखों में शाम ढलते हुए 
तुम्हारी रंगत से खौफ खाए 
बहारों को रंग बदलते हुए 

क्या हो ख़फ़ा ?
मुझसे या चाहत से मेरी 
मेरे जज़्बात के पैमाने में 
क्या रह गयी थी कभी कोई कमी 
चाहने में झलक चाह की थी 
या फिर थी चाहत में 
परश्तिश की , इबादत की कमी 

फिर राज़ है क्या ? 
क्यों ले चले हो साथ मुझे 
अपने अंदाज़  की पहेली में 
जिसमे उलझे हैं रेशम के कई धागे 
होठों की सिलवटों  में सवाल कई 
आँखों से बुनी  ख्वाब भरा जाल कोई  
कोई भी जहाँ रोज़ उलझना  चाहे 

बेवजह बेरुखी कैसी ?
रुख़  पर नया नकाब है क्यूँ 
आँखों में सितारों की चमक 
पर छुपा सा आफ़ताब है क्यूँ ?

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